Friday, June 26, 2009

प्रेम के बारे में मेरे विचार.........

आज से करीब दस साल पहले मैंने प्रेम के बारे में सोचते हुए ,महसूस करते हुए अपनी डायरी में कुछ लिखा था जिसे आज भी पढ़ता हूँ तो सही पता हूँ..........इसे ब्लॉग पर लिख रहा हूँ ....शायद आप इसे पढ़कर कुछ सोचें ,महसूस करे और अपनी प्रतिक्रिया से मुझे अवगत कराएँ ....इसी आशा के साथ....... *प्रेम हमारा स्वभाव है हम इससे मुक्त नही हो सकते जैसे लहरें सागर से । *प्रेम हमें बांधता नही वह मुक्त करता है । *प्लोटोनिक (अशरीरी या काल्पनिक ) प्रेम निरर्थक है या उसका कोई प्रतिफल नही ,ऐसा कहने वाले मेरी नज़र में झूठ बोलते हैं क्योंकि प्रेम की उद्भावना प्रथमतः प्लोटोनिक ही होती है और दूसरी बात प्लोटोनिक प्रेम में कभी संघर्ष नही होता वह बेहद ही आत्मिक और लचीला होता है । *आकर्षण से प्रेम और प्रेम में आकर्षण है दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं । *सौन्दर्य प्रेम का मध्यम है परन्तु प्रेम का वास्तविक सौन्दर्य प्रेमी की दृष्टि में होता है हमारी दृष्टि ही सुंदर और असुंदर का निर्णय करती है । *सौन्दर्य कभी वस्तुनिष्ठ नही होता वह सदा सापेक्षिक होता है । *प्रेम अपनी पराकाष्ठा पर एक प्रकार का जीवन संगीत है जो अनाहत होते हुए भी मधुर,हृदयस्पर्शी और समाधियुक्त है वह ईश्वरत्व की उपलब्धि सा है पर यहाँ पर पहुँचते-पहुँचते प्रेम प्रायः भक्ति (मधुरा) में रूपायित हो जाता है । *वासना और प्रेम दोनों आकर्षण से उत्पन्न हो सकते हैं पर वासना शारीरिक और प्रेम मानसिक(आत्मिक) होता है । *कभी-कभी हमारी वासना भी प्रेम का कारण या निमित्त बन जाती है । *प्रेम मांग नही करता वासना करती है प्रेम वियोग में तीव्रतर होता है जबकि वासना विकल्प ढूँढती है । प्रेम अनंत वियोग के उपरांत भी जीवित रहता है । *प्रेम का भी स्तर है और यह स्तर बनता है हमारी पात्रता और योग्यता पर जो कि स्वार्थ और सहजता पर निर्भर है .हृदय से पवित्र व्यक्ति ही प्रेम कर सकता है जिसमें मुदिता ,त्याग तो है पर अहम् का कालुष्य नही । *'मैं प्रेम करता हूँ ' यह स्वयं के प्रेम को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है परन्तु वास्तव में प्रेम कोई करना चाहकर नही करता वह हो जाता है । *जो प्रेममय है वह सबसे प्रेम करता है परन्तु जहाँ प्रेम पाता है वहां के प्रति स्थिर ,ईमानदार और त्यागमय रहता है । *प्रेम में बेवफाई कभी नही होती और जिसे हम बेवफाई कहते हैं वह स्वार्थ टूटने का प्रमाण होता है जिसके स्वार्थ को हमने भ्रमवश प्रेम मान लिया था । *जो 'बेवफा' होता है वह वास्तव में प्रेमी नही स्वार्थी होता है मतलब सिद्ध होने तक प्रेम के नाम पर हमें ठगता है और मासूम दिल अपनी आदत से मजबूर उसे प्रेम समझने की भूल करता है । *प्रेम सदैव अमर्यादित होता है परन्तु उसे मर्यादा के भीतर रहकर पूरा किया जा सकता है यदि दोनों ओर से इसकी पूर्ति हो और यदि एक चाहता है और दूसरा नही तो प्रेम में संदेह है । *प्रेम की प्रारंभिक स्थिति में एक दूसरे पर शंका या एक दूसरे से छूटने का भय हो सकता है परन्तु जैसे-जैसे इसका उन्नयन होता है ये शंका और भय निर्मूल होता जाता है और पराकाष्ठा के सन्निकट शून्य । *प्रेम एक तरफा नही होता यदि हम किसी से सच्चा प्रेम करते हैं तो वो भी हमें प्रेम करता अवश्य होगा ये बात दूसरी है की वह इससे इनकार कर रहा हो क्योंकि यह कभी अदा होती है और कभी अन्य परिवारजनों से संबंधो की दृढ़ता । पर इस प्रकार के प्रेम में दूसरी तरफ़ जिधर से इनकार हो रहा है कोई कमजोरी अवश्य होती है वह आर्थिक ,सामाजिक या अन्य किसी प्रकार की हो सकती है । * दूरी में आकर्षण है यह आकर्षण कभी प्रेम का रूप धारण कर लेता है जिसे प्लूटोनिक कह सकते हैं जैसे चंद्रमा हमें आकर्षित करता है वह हमसे दूर है और दूरी के कारण ही हमें उसमें एक सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जिसे कभी हमारा मन प्राप्त करना चाहता है परन्तु कोशिशें असफल होती हैं और विरह जन्य प्रेम का आभास होता है पर यह भ्रम हमारे भीतर मधुरता का संचार करता है हमें काव्यमय बनाता है कल्पनाशील बनाता है जो निरर्थक नही है.

Tuesday, June 16, 2009

कवितायें अब भी लिखता है .......

हाँ ! वह कविता लिखता था
घंटों बैठकर
रिक्त आकाश देखा करता था
अनगढ़ पत्थरों में आकृतियाँ
ढूँढा करता था
कभी ओ़स की बूंदों को आंसू
कभी उन्हें मोती कहता था
हाँ ! वह कविता लिखता था
उसकी आदत थी
वह सब पर विश्वास किया करता था
अपने अंतर्मन से सिंचित
अनुराग दिया करता था
हँसता था ,रोता था
बिल्कुल अबोध बच्चे जैसा
और कहूँ मैं उसे कहाँ तक
वह सुंगंध था जीवन में
कभी-कभी वो खो जाता था
अपनी बहकी सी खामोशी में
हाँ ! कभी-कभी वह बह जाता था
सागर की लहरों में खो सा जाता था
टकराता था साहिल की चट्टानों से
बार-बार गिरकर भी वो उठ जाता था
हाँ ! वह कविता लिखता था .......

किया किसी से कभी कंही था
उसने अपना प्रणय निवेदन
तिरस्कार-सा मिला तभी था
गर्वित था वह रूपाकर्षण

उसे चाहिए थी अपनी पहचान
मुक्त भोग का वह सोपान
जिसे समझता कवि विषपान
तब गा न सका वह अंतर्गान

छलना भरे विश्व में उसको
लगता था अब प्रेम व्यर्थ
स्वार्थ जहाँ कण-कण में हो
वहां नही जीवन का अर्थ

पर जैसे उसकी आदत थी
वह विश्वास ,प्रेम न छोड़ सका
संकीर्ण मार्ग का तिरस्कार कर
आशाओं के दीप जला ......
आत्मबोध से जगता था
हाँ ! कवितायें लिखता था

सोचा करता था -
कभी प्रेम वह भी समझेगी
अपनी गलती पर पछताएगी
जीवन में सुंदर क्या है ?
इसका अर्थ समझ पायेगी

बीत गए कितने दिन तब से
वह इंतज़ार करता है
आंखों में सपने रखकर
वह कवितायें अब भी लिखता है .