Saturday, June 28, 2008

बदलते शब्द

ये शब्द भी अजीब आदमी होते हैं
पता नही क्यों
अपनी मासूम अर्थवत्ता को छोड़
ऐठें-ऐठें से रहते हैं
खोखले ,बेजान बिल्कुल बेसुरे से
दौड़े-दौड़े से फिरते हैं
अक्सर टकरा जाते हैं मुझसे
मैं इन्हे पहचानने की कोशिश करता हूँ
हाथ बढ़ाता हूँ
ये हाथ मिलाने से इन्कार कर देते हैं
एक दिन
बेहद आत्मीय सा लगने वाला
शब्द - प्रेम मिला
मैंने चाह गले लगा लूँ
मगर ये क्या !!
इसमें जो भी अच्छा था
मेरे अनुभव से सच्चा था
वो बदल गया था
जब मैंने बात करनी चाही तो
वह स्वार्थ में खो गया था
मैंने पूछा -
तुम्हारा साथी विश्वास कहाँ है ?
उसने चौंक कर कहा -
अरे वो !
वो तो आउट डेटेड हो चुका है
पुराने पीपल के पास
एक झोपड़ी में बीमार-सा रहता है
उसकी जगह मैंने
अपनी कंपनी में
शक को अपोइन्ट कर लिया है
मैं समझ गया
प्रेम भी स्वार्थ के वशीभूत हो
छला गया
तभी मेरे पास
मेरा पुराना मित्र अनुभव
दौड़ा-दौड़ा आया
कहने लगा -
क्यों बंधुवर !
किस सोच में पड़ गए
मैंने जो कुछ भी
अब तक तुम्हे दिखाया
उसे एक दम ही भूल गए
परेशां मत हो
इसके बदल जाने में
इसका दोष नही
दोष है उन चंद लोगों का
जो इसकी चर्चा करते हैं
लेकिन इसका साथ नही देते
तभी तो -
अकेला पड़ गया है
अर्थवत्ता से शब्द का
तलाक हो गया है
विश्वास जो था साथी
वो भी दूर हो गया है
फ़िर मैं ...
अपने मित्र अनुभव के साथ
देर रात तक शहर में घूमता रहा
बहुत पुराने अच्छे शब्दों से मिलता रहा
लेकिन ........
सभी बदल चुके थे
अनुभव ने कहा -
मित्र !तुम अब तक छले गए थे .

Tuesday, June 24, 2008

भवितव्यता

उसने
मौसमों की बातें करनी छोड़ दी
क्योंकि -
वो बदल जाते हैं
उसने
लोगों की बातें करनी छोड़ दी
क्योंकि -
वो बदल जाते हैं
अब वो खामोश रहता है
देखते हुए -
सागर की लहरों को
आती-जाती बहारों को
खिलते हुए फूलों को
गाते हुए भौरों को
अब उसे लगता है
चर्चाएँ बेकार है
सब कुछ कह चुकने के बाद भी
बहुत कुछ रह जाता है
जिसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है
समय की धारा में रहकर
अस्तित्व की भवितव्यता को जानकर .

Saturday, June 21, 2008

संशय

अब मुझे भय लगता है
हर उस ज़ज्बात से
जिसमें प्यार है ,विश्वास है
क्योंकि -
दोनों ही टूटे हैं
बड़ी निर्दयता से हत्या कर दी गई
उस मासूम बच्चे की
जो हँस सकता था
दूसरों को खुशियाँ दे सकता था
हाँ ! मैं भी रोया था
उसके कत्ल के बाद
और वो सभी
जो प्रेम करना जानते थे
जो विश्वास करना जानते थे
क्योंकि -
वो मासूम बच्चा हमारा
अभिन्न अंग था
इस विलाप पर
वो हँसा था
जिसमें हृदय नही था
जो मुखौटे लगाना जानता था
तभी शायद ,
मुखौटा बदलकर बोला था
आबादी बढ़ने न पाए इंसानों की
जो प्यार कर सकते हैं
उसे भय था कि
लोग विश्वास पर जी सकते हैं
तभी से मुझे भय लगता है
हर एक पर शक सा होता है
कि जैसे -
सब अभिनय कर रहे हों
मंच पर आकर
अलग-अलग मुखौटे पहनकर
कि जैसे -
वो यकीन खो चुकने के बाद भी
यकीन दिलाना चाहते हों
एक जादूगर की तरह
पल भर में मुझे
हवा पर लिटा देंगें
बस एक बार ऑंखें बंद कर दूँ
सदा के लिए सुला देंगे
लेकिन -
मेरी भी जिद है
आख़िर मैं क्यों शक करना छोड़ दूँ
जबकि -
दोनों ही टूटे हैं
-प्यार भी
-विश्वास भी .

अनाम पात्र

जिन पात्रों के बारे में
तुमने पढ़ा है
उनमें से कुछ
तुम्हे प्रभावित कर गए
हालाँकि ,
वो पात्र अब नही हैं
उन पात्रों के रचयिता अब नही हैं
मुर्दों की बस्ती में
वीरान सी रात में
जब तुम अकेले थे
कब्रों पर लिखे हर्फों को पढ़ लिया
मुर्दों की शक्लें कैसी होंगीं गढ़ लिया
उनमें से कुछ वफादार हो गए
कुछ दावेदार हो गए
कुछ महान और कुछ भगवान् हो गए
मानता हूँ रहे होंगे वो वैसे ही
जैसे तुमने गढे हैं
क्योंकि ,
तुम्हारा गढ़ना आधारहीन नही है
हर्फों से उनका रिश्ता हो
ये नामुमकिन नही है
पर सोचो तो उन पात्रों के बारे में
जो आज वर्तमान हैं
कहीं अधिक जीवंत
तुम्हारे गढे हुए मुर्दों से
तुम्हारी कल्पना से परे
यथार्थ में जीते
सुकरात की तरह
विष का प्याला पीते
ईसा की तरह
शूली पर चढ़ते
ये बात और है
ये प्रसिद्ध नही रहे
हमारे तुम्हारे बीच जीते रहे
उपनिषदों के दर्शन
गीता के उपदेशों का
जीवन में अनुपालन कर
नई अभिव्यक्ति देते रहे
और हम सब उन्हें देखकर
मूर्खों की तरह हँसते रहे
उपहास उड़ाता है काल भी
हमें हँसता देखकर
रुदन से भीगी पलकें खोलकर
यह कौन कह रहा है
आत्मबोध है -
-आत्मपीडन
-आत्मपीडन
-आत्मपीडन

Thursday, June 19, 2008

फ़िर कौन हारा ?

असित नभ में
आज जागा एक तारा
अर्थ मुझको दे गया
फ़िर कौन हारा ?
अहम् की चट्टान को जो तोड़ दे
बह गई वह करुण धारा
उड़ गए पांखी सभी
तोड़कर पिंजरे की कारा
फ़िर कौन हारा ?
हर हार में एक जीत होती है सखे !
जो दृष्टि को आयाम देती है नया
करके अलसित स्वयं को तुम
मत बंधो जंजीर से
स्वयं को विस्तार दो तुम
प्यार के औदार्य में
शिशिर कण से प्रकृति ने
अश्रु का है मोल जाना
सूर्य की किरणों ने आकर
पुष्प को कैसे संवारा ?
फ़िर कौन हारा ?
फ़िर कौन हारा ?
फ़िर कौन हारा ?

अन्वेषक

सारी साहित्यिक विधाएं
जीवन का लेखा हैं
जिसमें-
सब कुछ लिखने के उपरांत भी
बहुत कुछ छूटा है
और तब तक छूटा रहेगा
जब तक संसार है ..........
नही समझे ?
तीन आदमी भटक गए थे
नदी की धारा देखते हुए
सागर तट पर पहुँच गए थे
कुछ खोजते हुए
उनमें से एक -
तट पर बैठ कर
लहरें गिनता रहा
रचनाएँ करता रहा
जीवन छोटा था लहरें अनंत
एक दिन मर गया
तट की शिलाओं पर
उसका नाम लिखा रह गया
दूसरा -
सागर में कूद पड़ा
और डूब गया
ऊपर तैरती हुयी
लाश की बंद मुट्ठी में
मोती था
जो दूसरों के लिए मूल्यवान
पर उसके लिए निरर्थक था
हाँ ! वो दार्शनिक था
तीसरे ने-
आगे का मार्ग खोजा
नौका बनाई
और सागर को पार कर गया
दूर क्षितिज पर जाकर
आकाश बन गया
वह मुक्त था
कुछ ने कहा -
वह भक्त था
कुछ ने कहा -
वह संत था
और मैंने कहा -
वह अनंत था
समय की सीमाओं से दूर
जिसे आज भी देखता हूँ
-सागर में
-मोती में
-आकाश में

सम-सामयिक

तुम कहते हो -
लिखूं कुछ सम-सामयिक
जैसे कि-
न्यूज पेपर वाली घटना
जिसे तुमने पढ़ी थी
चाय की चुस्की के साथ
सरे आम एक औरत को
निर्वस्त्र कर घुमाया गया
या फ़िर ,
तंग गलियां आबाद हुयी हैं
जिस्मफरोशी के धंधे से
लिख सकता हूँ इन्हे मैं
चटपटी ख़बरों की तरह
लेकिन क्या ये वैसे ही
बेकार न हो जाएँगी
जैसे उस दिन का पेपर
जिसे तुमने रद्दी में बेंच दिया था
कविता
यथार्थ को कहती अवश्य है मित्र !
पर संस्कार को देते हुए
वह जीवन को हृदय से जोड़ती है
दृष्टि को नया आयाम देते हुए
ताकि -
तुम ओस की बूंदों में
किसी के आँसू देख सको
और सूरज की गर्मी में भी
उसके कल्याण को देख सको .

प्रगल्भिता

वह कभी झूठ नही बोलती
समय की सीमाओं में बंधकर
वह तो मात्र बचाव करती है
समाज के दुर्भेद्य यथार्थ से
जिसने पराभूत किया है
उसके हर एक मर्म को
आघात पहुंचाकर
वह रेत ही हो जाती
मगर उसे तलाश थी
स्वयं में उस मोती की
जो खारे जल की बूंदों से
निर्मित होती है
तभी शायद
कभी-कभी वो
झूठ बोल लेती है
मुस्कुराते हुए
अपनी नज़रों से
दूसरों को तोल लेती है .

Tuesday, June 17, 2008

लहरें

जब मैं चुप था
सागर तट पर
लहरें हँसकर मुझसे बोलीं
कर्म हमारे सभी अकारथ
उठती गिरती
चलती रहतीं .

बेवफा

छोड़कर वह जा चुकी है
ये मकां जो है मेरा
आ रहीं हैं चिट्ठियां
फ़िर भी उसी के नाम की
जी चाहता है
कह दूँ सबसे
वो यहाँ रहती नही
बेवफा है जिंदगी
हर किसी को मिलती नही .........
......कह रहे हो जी रहा हूँ
पर कहाँ मैं जी रहा हूँ
टूटा हुआ पत्ता हूँ यारों
नदी में बस बह रहा हूँ .