Sunday, March 30, 2008

कवि-सृजन

दूर की आहट
रात के सन्नाटे में
दे जाती है - एक खोज
उस खोज की अनुभूतियाँ ही तो हैं
जो काग़ज पर लिखी कविता है
अकेले में -
मेरे अस्तित्व की सीमा
जब असीम होती है
एक बूँद
जब सागर में विलय होती है
तभी तो उभरते हैं -
वो आकार
जो हैं शब्दों के प्रकार
फ़िर भी
कहाँ उतारा जा सकता है
अनभूतियों को शब्दों में
कहाँ ढूँढा जा सकता है
बूँद को सागर में
किंतु -
प्रयास कवि धर्म है
जीवन-प्रेषण ही उसका मर्म है
जो संगीत पैदा कर सके
हृदय को प्रेम भाव से भर सके
मनुष्य को प्रेरणा दे सके
उसकी चेतना जगा सके

आशा

पल-पल टूटती जिंदगी
साँसों की तरह
छोड़ जाती है - यादें
रात के बाद
जब चाँद डूब जाता है
दूब पर पड़ी
ओस की बूँदें
मेरे रुदन को दे जाती हैं -दिलासा
सूरज की एक किरण
तब लेकर आती है -
एक संकल्प
एक आशा
-आगे बढ़ने को
-शिखर पर चढ़ने को
-और साहस
-निर्भय हो जीने को

मेरा स्वरचित क्या है

मेरा स्वरचित क्या है बोलो ?
सब कुछ मिला मुझे है
एक संयोग
मुझे बनाता
अनगढ़ से कुछ रचकर
मूर्ति नही
जीवंत कला का द्योतक
कवि
कविता को व्यक्त नही करता
कविता
कवि को व्यक्त किया करती है
जो जीवन है
जो यौवन है
जन्म - मृत्यु जिसकी क्रीड़ा है
वह एक तत्त्व
दीप्तिमान हो
कान्तिमान हो
उर की मात्र यही पीड़ा है
वाणी की वीणा कहती है
मेरे उर की पीड़ा कहती है
मेरा स्वरचित क्या है बोलो ?

Saturday, March 29, 2008

कवि

पूर्णिमा रात्रि का एकांत
मेरे अस्तित्व का विस्तार
जिसमें सभी सोए हैं
अपने सपनों में खोए हैं
क्या दोस्त ,क्या रिश्ते
क्या पराये, क्या अपने
सबके अपने-अपने सपने
अभी जबकि
मैं जाग रहा हूँ
एक दस्तक
दरवाजे पर दे रहा हूँ
कोई जगने वाला नही
मेरा रुदन
इस एकांत को
भंग कर रहा है
दूसरे का दुःख
मुझे तंग कर रहा है
पर कौन चाहता है
मुक्ति दुःख से
कल सुबह होगी
लोग जागेंगे
पर तब मैं नही रहूँगा
उस जागरण में
मेरे गीत दोहराए जायेंगे
स्वर से स्वर मिलाये जायेंगे
पर तब मैं नही रहूँगा
हालांकि -
घास पर बिखरी ओस की बूँदें
मेरे जाने के बाद भी
मेरे अनुगामियों को
निर्वाण देंगी
उनके लिए प्रार्थना की थी
किसी ने ईश्वर से
की वो जागें
इसका प्रमाण देंगी

बारिश के बाद

भीगा मौसम
ढलती शाम
सर्द हवा चलती दिल थाम
सब कुछ है अब धुला-धुला
मौसम भी है खुला-खुला
कितना खुश हूँ
देख सभी को
भीगे पंछी ,भीगे पेड़
और दौड़ते बच्चों के
जाने- पहचाने ये खेल
खिले हुए हैं - केना ,पलास
गुलमोहर और अमलतास
देते हैं मुझको अनंत हास .

तितली से

तुम नही आई
तो क्या हुआ
धूप आई है
मैं इसी से बोल लूंगा
प्रेम है स्वभाव मेरा
भेद सारे खोल दूँगा

दूर प्रान्तर में खिला
एक पुष्प हूँ
स्वयं में परिपूर्ण हूँ
खिलना है स्वभाव मेरा
खिल गया हूँ

जीवन मिला है
सुगंध का सौरभ मिला है
मैं इसे बिखरा रहा हूँ
प्रेम है स्वभाव मेरा
मैं इसे फैला रहा हूँ

निमित्त

तुम्हारा नाम क्या है
ये जानकर
मैं क्या करूंगा
रूप है कैसा तुम्हारा
ये मापकर
मैं क्या करूंगा
सूर्य की किरणें
कभी क्या पूछती हैं -
कौन हो तुम ?
चंद्रमा की चाँदनी
क्या देखती है -
रूप को
फ़िर मैं ...
छुद्रतम एक अंश हूँ -
ब्रम्हांड का
दर्प क्यों इसका करूं -
मैंने किया है प्यार तुमको
सौभाग्य है मेरा मुझे
तुम मिल गए हो
प्रेम के विस्तार में
एक निमित्त
मुझको कर गए हो

Wednesday, March 26, 2008

प्रेमाद्वैत

मेरे होठों पर
कोई मुस्कान नही छिटकी
हालांकि ,
बसंत में आम बौराया
कोयल ने खुशी हो गीत गया

मेरे होठों पर
कोई मुस्कान नही छिटकी
हालांकि ,
सावन की घटायें - घिरीं और बरसीं
केकी रव ने गायी कजरी

पर नही छिटकी
मेरे होठों पर वो मुस्कान
जिसमें छिपा था-
तुम्हारा प्यार
बस छिटकी है तो
मेरी पीड़ा
मेरे आँसू की रजत धार
फ़िर भी तुम कहती हो
मुझमें नही प्यार ?

सच कहती हो
मुझमें नही प्यार
क्योंकि -
अब तक तुमको ढूँढा तुममें
जबकि -
तुम हो मुझमें

तुम दूर कहाँ हो मुझसे
मेरे निकट यहीं मुझमें
मेरी स्मृति में
मेरी आंखों में
मेरी धड़कन में
मेरी साँसों में

तुम ही तो
-इस बसंत में
-इस सावन में
-केकी रव में
-कोयल की मधुरिम द्वानी में
-इस बदली में
-इस कजरी में

Monday, March 24, 2008

सागर और सरिता

सागर
समेत लेता अपने भीतर
नदी,नाले ,वर्षा सभी के
जल को
नही दान करता अपनी
अतुल सम्पदा को
किसी तृषित की तृषा
नही बुझाता
स्वयं में स्वार्थ की छुद्रता
छिपाये रहता
तभी तो-
हो गया उसका खरा जल
नही जिसमें संगीत
झरने सा कल-कल
देखो यह -
लघु सरिता
निरंतर जो बहती रहती
अपनी निधि का दान करती रहती
है जिसका मृदु-पूत सा जल
गिरकर भी देता जो
संगीत कल-कल
और हमसे हंसकर कहता -
आगे बढ़ चल !
आगे बढ़ चल !

मनोकामिनी

वर्षों बाद......
तुम्हे देखा है
खिलकर सुगंध फैलाते
और
चमकते तारों से
ये फूल तुम्हारे

प्रकृति-दान

सामने जो गुलमोहर का पेड़ है
देखता हूँ छायी हुई है
आज उस पर हरितिमा
झूमता है वह
उसकी पत्तियां
और जब यह फूलता है
एक मादक लावण्य सा
तब रूप इसका
सहज ही मुझको बुलाता
मौन होकर भी मुझे यह
अनाहत संगीत का आनंद देता
बस यही - ऐसा नही
या कहो सारी प्रकृति की सम्पदा
मुझ पर न्योछावर हो रही है
मांग इसकी कुछ नही
हाँ ! शान्ति मुझको दे रही है ...

तुम्हारे आते ही

तुम्हारे आते ही
निःसृत हो जाती हैं
कितनी कविताएँ-प्रेम की
तुम सूरज हो
और मैं उद्यान
तुम्हारे आते ही
खिल उठती हैं
सारी कलियाँ एक साथ .

असीम के प्रति

तुम कौन हो ?
मैं कौन हूँ ?
शब्द फ़ीके पड़ गए हैं
अहम् के विषवृक्ष मेरे
प्रेम में अब जल गए हैं
बस मौनता पर्याय है
इस प्रेम की
भाव अंतस में छिपे
शब्द सारे मर गए हैं
अश्रु की धारा निरंतर
झर रही है
करुणा तुम्हारी आदि से ही
बह रही है
भूल थी मेरी
तुम्हे पहचान न पाया
आकाश का विस्तार
मैं न माप पाया .

अंतरंगता

तुम्हारी अंतरंगता में
एक खुशबू है
जो बरबस मुझे खींच लेती है
जैसे गुलाब की कली
खिल जाने पर
और धरती बारिश से
भीग जाने पर .

Thursday, March 20, 2008

भोर की धूप

तुम आए बहार बनकर
क्या सजकर
क्या संवरकर
मैं देखता रहा -मूक होकर
काश !
कह पाता कि -
तुम क्या खूब हो
शरद ऋतु में
भोर की एक धूप हो .

कनेर का फूल

कनेर का पीला फूल
है आज भी मेरी
पुरानी डायरी के पन्नों में दबा
नही है इसमें - सुगंध ,रूप-रंग
जो उस समय था
जब मुस्कुराकर शरमाते हुए
तुमने दिया था
मगर है आज भी इसमें
वही आकर्षण
जो डायरी के खुल जाने पर
मुझे बरबस खीच लेता है
तुम्हारी स्मृति की ओर
है कौन सा जादू ?
नही हूँ जनता इसमें छिपा
कनेर का पीला फूल
है आज भी मेरी
पुरानी डायरी के पन्नों में दबा .

Monday, March 17, 2008

टूटना

मैं और तुम
एक दूसरे के पर्याय
लगते थे कभी
आज दूर हैं इतने की
शायद पहचानते नही
लेकिन क्यों ?
क्या मेरा तुम्हारा रिश्ता
ख़त्म हो गया ?
-नही
रिश्ते तो कभी नही बदलते
मौसमों की तरह
फ़िर ?
हाँ ! याद आया
तुमने कहा था एक बार
शायद अन्तिम बार
-मेरा तुमसे कोई स्वार्थ नही
-मेरा तुमसे ....

शिलालेख

कुछ पुरानी यादें
तुम्हारी कही बातें
मुझे फ़िर खड़ा कर देती हैं
वीराने से खंडहरों में
शिलालेख की तरह
जिसकी खामोशी भी
बयां करती है
दो कब्रों की दास्तान
जिसमें -
एक तुम्हारी है
एक मेरी है .

शायद

तब
प्यार हो सकता था
जब
उसे पता था
लेकिन शायद
तब
प्यार नही हो सकता था
जब
मुझे ये पता था
और इस होने न होने के बीच
कुछ ऐसा था
जो न मुझे पता था
न उसे पता था .

अनुभूति की खुशबू

लो -
ये मेरे अनुभूति के क्षण हैं
जिन्हें मैंने
शब्दों में बांधने का
असफल प्रयास किया है
शायद.....
तुम मेरी असफलता पर ही
खुश हो सको
जैसे की मैं खुश हूँ
अपनी आंखों से ढलके
दो आंसू की बूंदों को छूकर
अपनी सांसों को
तुम्हारे प्यार की खुशबू से भरकर .........

तुम्हारी स्मृति

सूनी सी साँझ में
तुम्हारी स्मृति
डूबते सूरज की लालिमा सदृश
याद दिलाती है
भोर की उस अरुणिमा की
जिसे मैं अब भी
अर्घ्य देता हूँ .......

प्रेमार्थ

सागर-तट पर खड़े होकर
गहराई नापी नही जाती
हो जाए प्यार तो
झिझको मत
डूब जाओ
क्योंकि -
मोती यूं पाई नही जाती
और फ़िर
मोती मिले या न मिले
डूबने वाला
मोती की आकांक्षा ही कब करता है
उसका तो डूबना ही
स्वयं को अर्थ देता है
प्रेम को मर्म देता है .

तुम्हारा प्रेम

तुम्हारे प्रेम का एक स्वर
मेरे कंठ को तृप्ति दे गया
तुम्हारे प्रेम का एक हास
मेरे रुदन को सुवासित कर गया
तुम्हारे प्रेम का एक स्मरण
मेरी कल्पना को पंख दे गया
तुम्हारे प्रेम का एक बिछोह
मुझे अनंत मिलन की तृषा दे गया
तुम्हारे प्रेम का एक बन्धन
मुझे समस्त बंधनों से मुक्त कर गया !

अपनी बात

तुम्हारा ही स्मरण करके
लिख पता हूँ
वो जो जीवन की भाषा है
मेरे लिए एक उम्मीद एक आशा है
पतझर के बाद का मौसम
वो जो हमारा है तुम्हारा है
तमन्नाएँ पूरी कर देने वाला
एक टूटता सितारा है
सिर्फ इसलिए की -
हमारी संवेदनाओं में प्रतिबिम्बित
एक चेहरा तुम्हारा है..........