सागर
समेत लेता अपने भीतर
नदी,नाले ,वर्षा सभी के
जल को
नही दान करता अपनी
अतुल सम्पदा को
किसी तृषित की तृषा
नही बुझाता
स्वयं में स्वार्थ की छुद्रता
छिपाये रहता
तभी तो-
हो गया उसका खरा जल
नही जिसमें संगीत
झरने सा कल-कल
देखो यह -
लघु सरिता
निरंतर जो बहती रहती
अपनी निधि का दान करती रहती
है जिसका मृदु-पूत सा जल
गिरकर भी देता जो
संगीत कल-कल
और हमसे हंसकर कहता -
आगे बढ़ चल !
आगे बढ़ चल !
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