Monday, April 21, 2008

पुकार

विद्वेष और घृणा के लम्हों में
कुछ अनिर्वचनीय सा दर्द लिए
पराभूत हुआ मैं
काल की कठोरता से
की तुमने पुकारा ही कब ?
महज़ इसलिए कि -
आर्थिक युग में
जीते हुए भी मैंने
अर्थ की सत्ता स्वीकार नही की
मनुष्यता के लिए
मानवीय संवेदना की
पुकार की

Thursday, April 17, 2008

इयत्ता से

लेकिन अर्थहीन जीवन को
क्या संज्ञा दूँ
जबकि -
मेरी इयत्ता
मुझे ही रोकती है
उस गहराई तक पहुँचने के लिए
जहाँ मेरा आशय छिपा है
तभी तो-
अनगिनत आँसू की बूंदों के बाद भी
दुःख का एक टुकड़ा
कहीं रुका है
(बह जाने के लिए )
तुम्हारी स्वीकृति इयत्ता !
तुम्हारा प्यार इयत्ता !
क्या सचमुच बुरा है ?

समय

दुःख
चाहे सबको मांजे या न मांजे
समय
सबको मांजता है
और दे आघात
जीवन आंकता है .

सपने

सन्नाटा भी बोल रहा है
सुधियों के पट खोल रहा है
संभव है मैं बह जाऊँ
आशाओं के दीप जलाऊँ
और कामना मधुर-मिलन की
लिए साथ में सो जाऊँ
लहरों की कल-कल छल-छल में
पायल के घुँघरू बजते हैं
विश्वासघात होने पर भी
आँखों में सपने पलते हैं

विरह

पंछियों ने गीत गाए
भोर का नभ जाग जाए
खिल रहे हैं फूल कितने
रूप का माधुर्य छाये
फ़िर कौन व्याकुल चीखता-सा
कह रहा है -
तुम न आए
तुम न आए
तुम न आए

अनावृत्त उजास

दिन तो बीत गया
एक साया
जो साथ था
धूप के आते ही
छूट गया
और अंधेरे में
मैं अकेला रह गया
इस खामोशी में
अपनी यादें ही भेज दो
क्या पाता मैं
फ़िर से जी पाऊँ
दिन के उस अनावृत्त उजास में
जिसमें -
तुम्हारा मुख-कमल खिला था
और मैं
प्रेम-सरोवर में
निर्वस्त्र-सा खड़ा था

Sunday, April 13, 2008

आत्मीय

मेरा दुःख
तुम्हारी आँखों का आँसू
जाने क्यों बन गया
मैं तो सिर्फ़
एक परिचित था
तुम्हारा आत्मीय
कब से बन गया
इसकी ख़बर
न मुझे थी
न तुम्हे है
लेकिन ये सच है -
सहजता के आँसू
एकांत में भी बहते हैं
जो दिल के करीब होते हैं
वही आत्मीय होते हैं

Wednesday, April 9, 2008

दूरी का सौन्दर्य

चाँद की सुन्दरता
दिल में चुभी
एक छूरी है
उसका आकर्षण
हमारे बीच की दूरी है

तनहाई

मेरा सृजन तुम्हारे बिना
रुका हुआ है
कि जैसे
सूखी धरती में
कोई बीज बिना बारिश के
दबा हुआ है
बीज के साथ
सूखी धरती है
जो उसे प्यार करती है
मेरे साथ मेरी तनहाई है
जो मुझे प्यार करती है .

दो नही एक

तुम्हारे आगोश में
जब आई थी
दुनिया छोड़कर
तब -
तुम थे और मैं
दो नही एक
अब -
तुम नही
दुनिया भी नही
सिर्फ़ मैं अकेली
तुम्हारी यादों के आगोश में
दो नही एक

डायरी के दो पन्ने

मेरी डायरी के दो पन्ने
अब डायरी में नही हैं
उसी तरह
जैसे कुछ प्यारे सपने
जो आँखों में थे
अब नही हैं
डायरी के दो पन्ने
और मेरे सपने
दोनों ही बह चुके हैं
समय की धारा में
लेकिन .....
मैं बंदी हूँ अब तक
स्मृतियों की कारा में .

Monday, April 7, 2008

तुम आई तो....

तुमने मेरा प्यार नही स्वीकार किया
तो क्या मैं खुश हूँ
मेरे कहने पर तुम आई तो
हाँ न सही
न कह पाई तो
सोच रहा हूँ
मेरे कहने पर तुम क्यों आई
तुम्हे वहाँ आने का
समय याद तो होगा
जहाँ कहा था मैंने तुमसे
मेरा मिलना होगा
तुम तैयार हुई होगी
कपड़े बदले होंगे
बल संवारे होंगे
दर्पण में चेहरा देखा होगा
ये सब करते हुए
तुम्हारा मन
मुझे याद तो करता होगा ?
मैं खुश हूँ
मेरा प्यार क्षणिक ही अपनाया
तो क्या
दिया जबाब दो टूक
मेरा दिल टूटा
तो क्या
अब तक थी तस्वीर तुम्हारी
एक आईने में
टूट गया दिल
देख रहा हूँ
कई मायनों में
तुमने मेरा प्यार नही स्वीकार किया
तो क्या
मैं खुश हूँ
मेरे कहने पर तुम आई तो
हाँ न सही
न कह पाई तो .........

Sunday, April 6, 2008

सापेक्ष

कभी भी
किसी से कोई
संतुष्ट नही होता
क्योंकि -
कोई भी किसी के सापेक्ष
परिपूर्ण नही होता

तलाश

आने से पहले सोचा था -
जाना है
उनको तलाश होगी मेरी
जाने से पहले सोच रहा हूँ
क्यों आया था ?
मुझको तलाश थी किसकी ?

प्रतीक्षा

अन्तिम बार .......
जब मैंने कहा था -
फ़िर कब मिलोगी ?
तुमने कहा था -
धूप छिटकते ही
लेकिन .........
आज तक वो धूप नही छिटकी
जो मुझे समेटती
अपनी बाँहों में
जबकि
मैं ख़ुद बिखर गया
घास पर
ओस बनकर ........

Friday, April 4, 2008

कविता और सूरज

कविता
एक सुंदर झूठ है
जैसे
सूरज हमसे बहुत दूर है
फ़िर भी
वह हमे स्पर्श करता है
जैसे
कविता

अतीत कि ओर

आज तुम भी चले गए
अपनी स्मृति
मेरे पास छोड़कर
उन तमाम मित्रों की तरह
जिन्हें मैं अब भी
याद करता हूँ
उस खंडहर की भाँति
जिसके बचे हुए भग्न - भाग
दर्शनीय होते हुए भी
ले जाते हैं -
अतीत की ओर

अर्थवत्ता

शब्दों कि अर्थवत्ता
तब खोयी नही थी
जब कहा था -
प्यार है तुमसे मुझे
हाँ ! खो गयी
जब अनसुना सा कर दिया
जिस तरह
हर बात वो
सिर्फ़ जिसको
-लिख दिया
-पढ़ लिया
-और कह दिया

बंशी

मैं खोखला एक बाँस हूँ
और तुम हो वायु
जब मुझको परस कर तुम गुजरती
फूटते हैं स्वर अनोखे
जो प्रेम के अकथनीय शब्दों को
सहज ही व्यक्त करते
बिन तुम्हारे
मैं भला किस काम का
खोखला , बेजान
बिल्कुल बेसुरा
निष्प्राण - सा

Wednesday, April 2, 2008

खामोशी

अनगढ़ पत्थरों को
मैंने पढ़ा है
जो सुंदर हैं
देवालय की उस प्रतिमा से
जिसे किसी शिल्पी ने गढा है
तुम्हे जानती दुनिया शब्दों से
तुमने जिसे कहा है
मैंने तो आँखें देखीं हैं
खामोशी को पढ़ा है

जागते रहो

जब कहीं कोई
भावना मर रही होती है
तब उसे अभिव्यक्ति देने के लिए
मेरी भावना जग रही होती है
कि जैसे -
चाँद की पूर्णता पर
ज्वार उठता है
और कहीं कोई दूर
रात के सन्नाटे में
आवाज देता है
-जागते रहो
-जागते रहो

सह्धर्मियों से

कल मैं चला जाऊंगा
जब क्षितिज के पार
क्या कर सकोगे तुम मेरा
शेष है जो काम ?
यह बंधी तृष्णा नही है
और न है मोह
चाहता हूँ बहती रहे
स्रोतस्विनी की धार
इसलिए हूँ पूछता -
क्या कर सकोगे प्यार ?
ले लो सभी कुछ आज
स्वयं को तुम माँज
-यह आनंद
-यह शान्ति
-यह संतोष
-यह प्रेम
यह अंतस का प्रपन्न भाव
दुःख - सुख के प्रति समभाव
लिख सकोगे तुम तभी
वो शब्द जो हैं बह रहे
-इस वायु में
-इस गंध में
हैं जो
-अनंत आकाश में
सुन सकोगे -
प्रणव की ध्वनि
स्वयं में तुम डूबकर
कर सकोगे -
संधान तम का
अंतर्ज्योती को तुम देखकर