Saturday, August 23, 2008

श्रद्धांजलि

हे पितः !
तुम्हारे द्वारा दी गई
पूर्णाहुति
कैसे विसर्जित की जा सकती है
पानी में
उससे तो
अभिषेक करना है हमें
वो शोभा है
हमारे ललाट की
और स्मृति भी
कि-
जीवन भर संघर्षों कि ज्वाला में
जलकर
करते रहे वर्षा हम पर
स्नेह की
हे पितः !
तुम्हारे द्वारा दी गई पूर्णाहुति
व्यर्थ नही जायेगी
वह हमारे उद्विकास में
नवीन चेतना लाएगी
व्यक्ति उत्थान से
लोक उत्थान तक
अनवरत विजयी होगी
जो संकल्प तुमने दिया है
जिजीविषा बन
हममें सदा रहेगी
मुझे याद है तुम्हारी पुकार
जो निरंतर उठती है मुझमें
बन संकल्प ज्वार -
"उठो ! जागो !
और उद्यम को प्राप्त हो
निर्निमेष काल से अभिसिंचित
प्रगति का पोषण करो
प्रिय पुत्र ! हर स्थिति में
ईश पर विश्वास कर
शक्ति का संवरण करो " .

माँ

माँ
सिर्फ़ एक शब्द नही
एक भाव
ममत्व का
माँ
सिर्फ़ पोषक नही
एक प्यार
जीवन का
माँ
सिर्फ़ अस्थियों का ढांचा नही
एक आकार
स्नेह का
माँ
सिर्फ़ एक सम्बन्ध नही
एक स्रोत करुणा का .

Saturday, August 16, 2008

किस बात की तुमको हताशा ?

किस बात की तुमको हताशा
टूटती जब नही आशा
मानवी की प्रकृति है ये
जो बदलती जा रही है
रेत जैसी जिंदगी
हर क्षण फिसलती जा रही है
क्या हुआ जो एक स्वप्न
टूटा तुम्हारा
क्या हुआ जो एक साथी
छूटा तुम्हारा
प्रकृति है अनुरागिनी
अनुराग उसको है सभी से
तुम चलो अब साथ उसके
और देखो नए सपने
टूटकर भी नही खोते
ह्रदय अपने प्यार को
फ़िर तुम्हे कैसी निराशा
टूटती जब नही आशा
किस बात की तुमको हताशा .

समर्पण

आस्थाएँ टूटें नही
उस अनजान के प्रति
जो सदा ढांढस बंधाता
तुम हुए असफल
भला फ़िर क्या हुआ
हारना था एक को
तुम ही सही
एक कोशिश और हो
नए संदर्भों में
क्या पता तुम विजित हो
आख़िर भवितव्यता है
हाथ उसके
क्या पता तुम पा सको
सत्य अपने
खोजना तो सबको पड़ा है
रास्ता उस छोर का
मंजिलें आकर सभी
ख़त्म हो जाती जंहाँ
और है प्रारम्भ जिसपर
अनंत का वैभव निरंतर
धड़कनें कहतीं जहाँ हैं -
सत्य है केवल समर्पण .

बुद्धिजीवी भडुआ

अस्तित्व की सारी लडाई
रहें कैसे बनकर इकाई
सोचता हर मूढ़
देता स्वप्न की पागल दुहाई
स्वार्थ जिसका आत्मसीमित
कर रहा है बेहयाई
वासनाओं के लिए
वह ढूंढता है तर्क कोई
और उसको फेंककर वह मुस्कुराता
नही जिसमे शर्म कोई
ढोंग उसका है उसे भी सालता
यत्किंचित कभी
पर बुद्धिजीवी भडुआ बना वह
सोचता मैं हूँ सही
भूलता सम्बन्ध सारे
आत्मीयता मारकर
कर रहा दुष्कर्म सारे
नित धर्म को वह त्यागकर
कौन समझाए उसे
वह अनसुना है कर रहा
आत्मचेतस भाव को जो
मारकर है जी रहा .

Saturday, August 9, 2008

जाने क्यों

जाने क्यों
विश्वास नही होता
जो गुज़र गया
वह अतीत केवल भ्रम था
वह सम्बन्ध आत्मीय सा
जो हममे तुममे था
वो महज़ एक सपना था
तुम भूल गए मुझको
मैं तुम्हे भुला न पाया
शायद इसीलिए कि
जो जीवित है मुझमे अभी तलक
वो तुममे था कभी
बहुत निकट से पाया .

तुम्हारे आघात सहकर

तुम्हारे आघात सहकर
आंसू गिर नही पाये
शिलाओं पर उकेरे चित्र
जो यह कह नही पाये
कि-
वह शिल्पी नही था
जिसने मुझे निर्मित किया
मैं अभिव्यक्ति हूँ
इस शिला की
जिसने मुझे पैदा किया
तुम्हारे आघात सहकर .

रूपगर्विता

अनाम !
तुम फ़िर रूठ गए
बिना ये कहे कि
मेरी भूल क्या है ?
और मैं ........
मैं खोजा करता हूँ
उस कारण को
जो दरार बना है
हमारे बीच की जमीन में
कदम बढ़ाकर कई बार चाहा कि
लाँघ जाऊं वह दरार
लेकिन पता नही क्यों
मुझे लगता है
ऐसा करने में
तुम दोषी मुझे ही ठहराओगे
अपने रूठ जाने का
और फ़िर मैं
इंतज़ार करने लगता हूँ
ये सोचकर कि शायद
तुम ही मान जाओ या फ़िर
कारण दे जाओ
अपने रूठने का
मगर तुम्हारी खामोशी भी अजीब है
जो टूटती ही नही
हर बार मैं ही
पराजित-सा
विवश-सा
आ जाता हूँ
तुम्हारे पास
तुम्हे मनाने
अनाम !
इस बार ऐसा नही होगा
मैं अपने प्यार को
लाचार नही करूंगा
और न ही बनाऊंगा उसे -जरूरत
रहने दो खामोश
हमारे बीच के संवाद को
बढ़ती है तो बढ़ जाने दो
हमारे बीच इस दरार को
अपने ही अस्तित्व में
वो सब कुछ
जो तुममे चाहा-पा लूँगा
अतीत की स्मृतियों में झाँककर
ख़ुद को अपने ही प्यार से-भर लूँगा
जो मेरे अहम् का
एक टूटा हुआ हिस्सा है
और तुम्हारे अहम् में
जुडा एक किस्सा है .