अस्तित्व की सारी लडाई
रहें कैसे बनकर इकाई
सोचता हर मूढ़
देता स्वप्न की पागल दुहाई
स्वार्थ जिसका आत्मसीमित
कर रहा है बेहयाई
वासनाओं के लिए
वह ढूंढता है तर्क कोई
और उसको फेंककर वह मुस्कुराता
नही जिसमे शर्म कोई
ढोंग उसका है उसे भी सालता
यत्किंचित कभी
पर बुद्धिजीवी भडुआ बना वह
सोचता मैं हूँ सही
भूलता सम्बन्ध सारे
आत्मीयता मारकर
कर रहा दुष्कर्म सारे
नित धर्म को वह त्यागकर
कौन समझाए उसे
वह अनसुना है कर रहा
आत्मचेतस भाव को जो
मारकर है जी रहा .
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