Saturday, August 9, 2008

रूपगर्विता

अनाम !
तुम फ़िर रूठ गए
बिना ये कहे कि
मेरी भूल क्या है ?
और मैं ........
मैं खोजा करता हूँ
उस कारण को
जो दरार बना है
हमारे बीच की जमीन में
कदम बढ़ाकर कई बार चाहा कि
लाँघ जाऊं वह दरार
लेकिन पता नही क्यों
मुझे लगता है
ऐसा करने में
तुम दोषी मुझे ही ठहराओगे
अपने रूठ जाने का
और फ़िर मैं
इंतज़ार करने लगता हूँ
ये सोचकर कि शायद
तुम ही मान जाओ या फ़िर
कारण दे जाओ
अपने रूठने का
मगर तुम्हारी खामोशी भी अजीब है
जो टूटती ही नही
हर बार मैं ही
पराजित-सा
विवश-सा
आ जाता हूँ
तुम्हारे पास
तुम्हे मनाने
अनाम !
इस बार ऐसा नही होगा
मैं अपने प्यार को
लाचार नही करूंगा
और न ही बनाऊंगा उसे -जरूरत
रहने दो खामोश
हमारे बीच के संवाद को
बढ़ती है तो बढ़ जाने दो
हमारे बीच इस दरार को
अपने ही अस्तित्व में
वो सब कुछ
जो तुममे चाहा-पा लूँगा
अतीत की स्मृतियों में झाँककर
ख़ुद को अपने ही प्यार से-भर लूँगा
जो मेरे अहम् का
एक टूटा हुआ हिस्सा है
और तुम्हारे अहम् में
जुडा एक किस्सा है .

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