ये शब्द भी अजीब आदमी होते हैं
पता नही क्यों
अपनी मासूम अर्थवत्ता को छोड़
ऐठें-ऐठें से रहते हैं
खोखले ,बेजान बिल्कुल बेसुरे से
दौड़े-दौड़े से फिरते हैं
अक्सर टकरा जाते हैं मुझसे
मैं इन्हे पहचानने की कोशिश करता हूँ
हाथ बढ़ाता हूँ
ये हाथ मिलाने से इन्कार कर देते हैं
एक दिन
बेहद आत्मीय सा लगने वाला
शब्द - प्रेम मिला
मैंने चाह गले लगा लूँ
मगर ये क्या !!
इसमें जो भी अच्छा था
मेरे अनुभव से सच्चा था
वो बदल गया था
जब मैंने बात करनी चाही तो
वह स्वार्थ में खो गया था
मैंने पूछा -
तुम्हारा साथी विश्वास कहाँ है ?
उसने चौंक कर कहा -
अरे वो !
वो तो आउट डेटेड हो चुका है
पुराने पीपल के पास
एक झोपड़ी में बीमार-सा रहता है
उसकी जगह मैंने
अपनी कंपनी में
शक को अपोइन्ट कर लिया है
मैं समझ गया
प्रेम भी स्वार्थ के वशीभूत हो
छला गया
तभी मेरे पास
मेरा पुराना मित्र अनुभव
दौड़ा-दौड़ा आया
कहने लगा -
क्यों बंधुवर !
किस सोच में पड़ गए
मैंने जो कुछ भी
अब तक तुम्हे दिखाया
उसे एक दम ही भूल गए
परेशां मत हो
इसके बदल जाने में
इसका दोष नही
दोष है उन चंद लोगों का
जो इसकी चर्चा करते हैं
लेकिन इसका साथ नही देते
तभी तो -
अकेला पड़ गया है
अर्थवत्ता से शब्द का
तलाक हो गया है
विश्वास जो था साथी
वो भी दूर हो गया है
फ़िर मैं ...
अपने मित्र अनुभव के साथ
देर रात तक शहर में घूमता रहा
बहुत पुराने अच्छे शब्दों से मिलता रहा
लेकिन ........
सभी बदल चुके थे
अनुभव ने कहा -
मित्र !तुम अब तक छले गए थे .
1 comment:
rahul tum bahut achcha likhte ho yo hi likhte raho. jaya
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