हाँ ! वह कविता लिखता था
घंटों बैठकर
रिक्त आकाश देखा करता था
अनगढ़ पत्थरों में आकृतियाँ
ढूँढा करता था
कभी ओ़स की बूंदों को आंसू
कभी उन्हें मोती कहता था
हाँ ! वह कविता लिखता था
उसकी आदत थी
वह सब पर विश्वास किया करता था
अपने अंतर्मन से सिंचित
अनुराग दिया करता था
हँसता था ,रोता था
बिल्कुल अबोध बच्चे जैसा
और कहूँ मैं उसे कहाँ तक
वह सुंगंध था जीवन में
कभी-कभी वो खो जाता था
अपनी बहकी सी खामोशी में
हाँ ! कभी-कभी वह बह जाता था
सागर की लहरों में खो सा जाता था
टकराता था साहिल की चट्टानों से
बार-बार गिरकर भी वो उठ जाता था
हाँ ! वह कविता लिखता था .......
किया किसी से कभी कंही था
उसने अपना प्रणय निवेदन
तिरस्कार-सा मिला तभी था
गर्वित था वह रूपाकर्षण
उसे चाहिए थी अपनी पहचान
मुक्त भोग का वह सोपान
जिसे समझता कवि विषपान
तब गा न सका वह अंतर्गान
छलना भरे विश्व में उसको
लगता था अब प्रेम व्यर्थ
स्वार्थ जहाँ कण-कण में हो
वहां नही जीवन का अर्थ
पर जैसे उसकी आदत थी
वह विश्वास ,प्रेम न छोड़ सका
संकीर्ण मार्ग का तिरस्कार कर
आशाओं के दीप जला ......
आत्मबोध से जगता था
हाँ ! कवितायें लिखता था
सोचा करता था -
कभी प्रेम वह भी समझेगी
अपनी गलती पर पछताएगी
जीवन में सुंदर क्या है ?
इसका अर्थ समझ पायेगी
बीत गए कितने दिन तब से
वह इंतज़ार करता है
आंखों में सपने रखकर
वह कवितायें अब भी लिखता है .
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