Saturday, September 27, 2008

आकांक्षा

तुम आक़र मेरे जीवन में
यूँ ही एक स्वर बन जाया करो
अधरों से मेरे गीत उठें तो
उनमें तुम मिल जाया करो

चंदन की खुशबू हो तुम
या रजनीगंधा फूल कोई
सुरभित कर जाती हो मुझको
तुम यूँ ही प्रसारित हुआ करो

जीवन-मरू की जलधार हो तुम
मेरे सपनों का साकार हो तुम
जो छू जाए मेरे मन को
ऐसी सुंदर मुस्कान हो तुम

मेरे नीरव से जीवन में तुम
कलरव बनकर यूँ हँसा करो
जब मैं चातक सा तृषित बनूँ
तुम स्वाति बूँद बन जाया करो

पतझड़ तो आए हरदम ही
मेरे जीवन के सांद्य समय
तुम उसमें भी बन दीप कोई
मेरा पथ आलोकित किया करो

तुम सजल करो मेरे नयनों को
दो अश्रु धार बह जाने दो
भर सकूं हृदय को भावों से
ऐसा अतुलित तुम प्यार करो

तुम हो अंतस का प्रपन्न भाव
झंकृत वीणा को किया करो
मेरी स्वर लहरी गूँज उठे
आशीष प्रेम का दिया करो .

Saturday, September 13, 2008

अद्वैत

अंधकार में आहट आती
बार-बार नीरव को चीर
कर जाती संतप्त हृदय को
दे जाती कलुषित सी पीर

कहते थे तुम उसकी संसृति
वो है जग का रचनाकार
पर ये त्रैताप जगत में इतना
क्यों करता है हाहाकार

फैला है उसके जग में क्यों
यह अशांत सा पापाचार
क्यों जग सारा मदिरा में डूबा
कर रहा निरंतर चीत्कार

कहते थे तुम वह है
सर्वज्ञ और अंतर्यामी
फ़िर बोलो क्या न समझ सका
इस जग की सिहरन खल-कामी

मेरे अन्तर की ज्वाला भी
देखो कितनी है धधक रही
कर रही तुम्हारे प्रियतम से
संवाद मौन में भभक रही

मैं नही मानता वह जग का
हो सकता है निर्माता
जिसको कहते तुम खेल-खेल में
यह जग सारा रच डाला

जब एक मनुष्य तृष्णा में पड़कर
पापी हो सकता है
तो इस तृष्णामय जग का वह निर्माता
कैसे बच सकता है

बंधे हुए से भटक रहे हैं
नक्षत्र और ग्रह तारे सारे
कहाँ स्वतंत्रता फ़िर जगती में
फिरते हैं मारे-मारे

ओ मेरे सूनेपन के साथी !
तुम भी कितने छलिया हो
रहकर साथ सदा ही मेरे
करते बातें उसकी हो

आओ आज तुम्हारे
सारे भ्रम को मैं क्षीदित कर दूँ
व्यक्ति रूप में कहीं नही है
तेरा प्रियतम तुझसे कह दूँ


वह तो है चेतनता
इस अखिल ब्रह्माण्ड शाश्वत में
फिर संदर्भित क्या रह जाता है
जड़ या चेतन में ?

मैं हूँ ,तुम हो और प्रकृति
ये भ्रम है मन की चंचलता
एक वही है और न दूजा
समझो छोडो सब पंकलता


दुःख -सुख तो प्रतीति हैं मन की
कष्ट सभी इस तन के हैं
वह एक सदा ही निस्पृह है
प्रज्ञा बोध उसी के हैं

यह प्रपंच जो दीख रहा है
उसको तुम माया कह लो
वर्तमान क्षण आनंद भरा है
चिंता को दुःख कह लो

गतिमय है ब्रह्माण्ड सकल
चेतनता है भरी हुयी
कर्तत्व भाव को छोडो
देखो कर्ता है कहीं नही

नदियाँ गिरि से निकल निकलकर
दौडी जाती हैं सागर की ओर
बादल भी जल लेकर देखो
है भिगो रहा संसार छोर

मधुपों ने गुंजार किया
कलियों ने श्रृंगार किया
पर कहीं नही कोई कहता
हमने ये कर्म विशेष किया

पंछी गाते वृक्ष उग रहे
कलियाँ खिलती रहती हैं
धूप खिल रही,रात्रि जा रही
ऋतुएं बदला करती हैं

बजती है अनहद नाद कहीं
खिलती है करुणा की मुस्कान
सुधा छलकती पूरित करती
लो ! आ गए हमारे प्रियतम प्राण

अब तक मैं था , अब कहीं नही हूँ
सर्वस्व स्वतः खो जाता है
कैसे कहूं उस अनंत भाव को
कहने वाला खो जाता है

बिखर पड़ रहे शब्द मेरे
फ़िर भी तुम कहते हो बोलो
तो आओ अंतस में मेरे
देखो उसको तुम भी ले लो

पाकर मैं हूँ धन्य उसे
अब कही नही है जाना
जान चुका कैसे झूठा है
जगती का सब ताना-बाना

बस ! अब और नही कह सकता
वह अनंत है शब्द परे
अनुभूति सदा एकाकी है
वह चर्चाओं से सदा परे .

Saturday, September 6, 2008

अभिज्ञान

संसृति में फैली है कितनी
नीरव शान्ति अपरमित
फैला है कितना आनंद
कभी नही रहा जो सीमित

फ़िर भी मनुष्य अनभिज्ञ
सदा ही दुःख सहता है
उसका जीवन तृष्णा बनकर
उसको ही छलता है

भूत भविष्य में भरमाया
वर्तमान को खोता है
बैठ विपिन की गहन छाँव
प्रात हेतु रोता है

आनंद खोजने चला किंतु
कहाँ उसे कब पता है
वह तो भीतर ही रहता
जब जगता तब पाता है

इतनी विस्तृत अवनी पर
शान्ति कहाँ न उसने खोजी
पर मिली वहां जहाँ स्वयं ही
मृत्यु खड़ी है रोती

अब तक तो वह भटक रहा था
अलियों-कलियों के सपने में
पर आज वही है रास रचाता
मरघट के सूनेपन में

सच है जीवन एक छलावा
जब तक हम सोते हैं
छालियाँ है उसकी मुस्कानें
जब तक हम दुःख बोते हैं

जब मिली हुयी है साँसें गिनकर
फ़िर क्यों अशांति ढोते हैं
प्रेम और करुणा से वंचित
भूले भटके जीते हैं

आओ आज संकल्प करें
हम नही सहेंगे मिथ्या को
तोडेंगे ख़ुद का अंहकार
पाएंगे अविकल श्रद्धा को

अब हम भी जानेगें जीवन को
क्या सचमुच उसमें रस है
क्या कहीं कोई शाश्वत अपरमित
हम हेतु प्रतीक्षा रत है ?

भर चुके बहुत तृष्णाओं को
फ़िर भी ये शेष रही हैं
फ़िर जाना ये दुष्पूरक हैं
कब जग में तृप्त रहीं हैं

अब तक तो आशा थी अमृत की
पर आज गरल को पी पाया
दृष्टि खोलकर हे शाश्वत !
अब जाना कितना भरमाया .