नीरव शान्ति अपरमित
फैला है कितना आनंद
कभी नही रहा जो सीमित
फ़िर भी मनुष्य अनभिज्ञ
सदा ही दुःख सहता है
उसका जीवन तृष्णा बनकर
उसको ही छलता है
भूत भविष्य में भरमाया
वर्तमान को खोता है
बैठ विपिन की गहन छाँव
प्रात हेतु रोता है
आनंद खोजने चला किंतु
कहाँ उसे कब पता है
वह तो भीतर ही रहता
जब जगता तब पाता है
इतनी विस्तृत अवनी पर
शान्ति कहाँ न उसने खोजी
पर मिली वहां जहाँ स्वयं ही
मृत्यु खड़ी है रोती
अब तक तो वह भटक रहा था
अलियों-कलियों के सपने में
पर आज वही है रास रचाता
मरघट के सूनेपन में
सच है जीवन एक छलावा
जब तक हम सोते हैं
छालियाँ है उसकी मुस्कानें
जब तक हम दुःख बोते हैं
जब मिली हुयी है साँसें गिनकर
फ़िर क्यों अशांति ढोते हैं
प्रेम और करुणा से वंचित
भूले भटके जीते हैं
आओ आज संकल्प करें
हम नही सहेंगे मिथ्या को
तोडेंगे ख़ुद का अंहकार
पाएंगे अविकल श्रद्धा को
अब हम भी जानेगें जीवन को
क्या सचमुच उसमें रस है
क्या कहीं कोई शाश्वत अपरमित
हम हेतु प्रतीक्षा रत है ?
भर चुके बहुत तृष्णाओं को
फ़िर भी ये शेष रही हैं
फ़िर जाना ये दुष्पूरक हैं
कब जग में तृप्त रहीं हैं
अब तक तो आशा थी अमृत की
पर आज गरल को पी पाया
दृष्टि खोलकर हे शाश्वत !
अब जाना कितना भरमाया .
अब हम भी जानेगें जीवन को
क्या सचमुच उसमें रस है
क्या कहीं कोई शाश्वत अपरमित
हम हेतु प्रतीक्षा रत है ?
भर चुके बहुत तृष्णाओं को
फ़िर भी ये शेष रही हैं
फ़िर जाना ये दुष्पूरक हैं
कब जग में तृप्त रहीं हैं
अब तक तो आशा थी अमृत की
पर आज गरल को पी पाया
दृष्टि खोलकर हे शाश्वत !
अब जाना कितना भरमाया .
No comments:
Post a Comment