Saturday, September 6, 2008

अभिज्ञान

संसृति में फैली है कितनी
नीरव शान्ति अपरमित
फैला है कितना आनंद
कभी नही रहा जो सीमित

फ़िर भी मनुष्य अनभिज्ञ
सदा ही दुःख सहता है
उसका जीवन तृष्णा बनकर
उसको ही छलता है

भूत भविष्य में भरमाया
वर्तमान को खोता है
बैठ विपिन की गहन छाँव
प्रात हेतु रोता है

आनंद खोजने चला किंतु
कहाँ उसे कब पता है
वह तो भीतर ही रहता
जब जगता तब पाता है

इतनी विस्तृत अवनी पर
शान्ति कहाँ न उसने खोजी
पर मिली वहां जहाँ स्वयं ही
मृत्यु खड़ी है रोती

अब तक तो वह भटक रहा था
अलियों-कलियों के सपने में
पर आज वही है रास रचाता
मरघट के सूनेपन में

सच है जीवन एक छलावा
जब तक हम सोते हैं
छालियाँ है उसकी मुस्कानें
जब तक हम दुःख बोते हैं

जब मिली हुयी है साँसें गिनकर
फ़िर क्यों अशांति ढोते हैं
प्रेम और करुणा से वंचित
भूले भटके जीते हैं

आओ आज संकल्प करें
हम नही सहेंगे मिथ्या को
तोडेंगे ख़ुद का अंहकार
पाएंगे अविकल श्रद्धा को

अब हम भी जानेगें जीवन को
क्या सचमुच उसमें रस है
क्या कहीं कोई शाश्वत अपरमित
हम हेतु प्रतीक्षा रत है ?

भर चुके बहुत तृष्णाओं को
फ़िर भी ये शेष रही हैं
फ़िर जाना ये दुष्पूरक हैं
कब जग में तृप्त रहीं हैं

अब तक तो आशा थी अमृत की
पर आज गरल को पी पाया
दृष्टि खोलकर हे शाश्वत !
अब जाना कितना भरमाया .

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