Saturday, September 13, 2008

अद्वैत

अंधकार में आहट आती
बार-बार नीरव को चीर
कर जाती संतप्त हृदय को
दे जाती कलुषित सी पीर

कहते थे तुम उसकी संसृति
वो है जग का रचनाकार
पर ये त्रैताप जगत में इतना
क्यों करता है हाहाकार

फैला है उसके जग में क्यों
यह अशांत सा पापाचार
क्यों जग सारा मदिरा में डूबा
कर रहा निरंतर चीत्कार

कहते थे तुम वह है
सर्वज्ञ और अंतर्यामी
फ़िर बोलो क्या न समझ सका
इस जग की सिहरन खल-कामी

मेरे अन्तर की ज्वाला भी
देखो कितनी है धधक रही
कर रही तुम्हारे प्रियतम से
संवाद मौन में भभक रही

मैं नही मानता वह जग का
हो सकता है निर्माता
जिसको कहते तुम खेल-खेल में
यह जग सारा रच डाला

जब एक मनुष्य तृष्णा में पड़कर
पापी हो सकता है
तो इस तृष्णामय जग का वह निर्माता
कैसे बच सकता है

बंधे हुए से भटक रहे हैं
नक्षत्र और ग्रह तारे सारे
कहाँ स्वतंत्रता फ़िर जगती में
फिरते हैं मारे-मारे

ओ मेरे सूनेपन के साथी !
तुम भी कितने छलिया हो
रहकर साथ सदा ही मेरे
करते बातें उसकी हो

आओ आज तुम्हारे
सारे भ्रम को मैं क्षीदित कर दूँ
व्यक्ति रूप में कहीं नही है
तेरा प्रियतम तुझसे कह दूँ


वह तो है चेतनता
इस अखिल ब्रह्माण्ड शाश्वत में
फिर संदर्भित क्या रह जाता है
जड़ या चेतन में ?

मैं हूँ ,तुम हो और प्रकृति
ये भ्रम है मन की चंचलता
एक वही है और न दूजा
समझो छोडो सब पंकलता


दुःख -सुख तो प्रतीति हैं मन की
कष्ट सभी इस तन के हैं
वह एक सदा ही निस्पृह है
प्रज्ञा बोध उसी के हैं

यह प्रपंच जो दीख रहा है
उसको तुम माया कह लो
वर्तमान क्षण आनंद भरा है
चिंता को दुःख कह लो

गतिमय है ब्रह्माण्ड सकल
चेतनता है भरी हुयी
कर्तत्व भाव को छोडो
देखो कर्ता है कहीं नही

नदियाँ गिरि से निकल निकलकर
दौडी जाती हैं सागर की ओर
बादल भी जल लेकर देखो
है भिगो रहा संसार छोर

मधुपों ने गुंजार किया
कलियों ने श्रृंगार किया
पर कहीं नही कोई कहता
हमने ये कर्म विशेष किया

पंछी गाते वृक्ष उग रहे
कलियाँ खिलती रहती हैं
धूप खिल रही,रात्रि जा रही
ऋतुएं बदला करती हैं

बजती है अनहद नाद कहीं
खिलती है करुणा की मुस्कान
सुधा छलकती पूरित करती
लो ! आ गए हमारे प्रियतम प्राण

अब तक मैं था , अब कहीं नही हूँ
सर्वस्व स्वतः खो जाता है
कैसे कहूं उस अनंत भाव को
कहने वाला खो जाता है

बिखर पड़ रहे शब्द मेरे
फ़िर भी तुम कहते हो बोलो
तो आओ अंतस में मेरे
देखो उसको तुम भी ले लो

पाकर मैं हूँ धन्य उसे
अब कही नही है जाना
जान चुका कैसे झूठा है
जगती का सब ताना-बाना

बस ! अब और नही कह सकता
वह अनंत है शब्द परे
अनुभूति सदा एकाकी है
वह चर्चाओं से सदा परे .

2 comments:

36solutions said...

बहुत बढ़िया !

DEEPAK NARESH said...

जब एक मनुष्य तृष्णा में पड़कर
पापी हो सकता है
तो इस तृष्णामय जग का वह निर्माता
कैसे बच सकता है
ये पंक्तियां अद्भुत है गुरू जी..साधुवाद...

आपकी मित्रता मेरे लिए एक धरोहर है..